तेलंगाना में जंगलों पर विकास की कुल्हाड़ी: कंचा गाचीबोवली से विकराबाद तक हरियाली खतरे में
Voice of Pratapgarh News ✍️रविंद्र आर्य विशेष संवाददाता
जब कोई राष्ट्र ‘विकास’ के पथ पर दौड़ता है, तो वह अक्सर अपने मूल—प्रकृति, हरियाली और पर्यावरण—को पीछे छोड़ देता है। तेलंगाना में हो रही हालिया घटनाएँ इसी दर्दनाक सच्चाई को उजागर करती हैं, जहाँ जंगलों की नीलामी, पेड़ों की कटाई और जैवविविधता का विनाश तेज़ी से चल रहा है। कंचा गाचीबोवली से लेकर विकराबाद तक, विकास की आड़ में विनाश की कहानी लिखी जा रही है।
कंचा गाचीबोवली: वन से भवन तक
तेलंगाना सरकार ने हैदराबाद के पास रंगा रेड्डी जिले के कंचा गाचीबोवली गाँव की लगभग 400 एकड़ वन भूमि की नीलामी का प्रस्ताव रखा है। सरकार का दावा है कि यह ज़मीन आईटी पार्क, सड़क संपर्क और शहरी बुनियादी ढांचे के विकास में काम आएगी। लेकिन सामाजिक संगठनों और पर्यावरणविदों के लिए यह “सतत विकास” नहीं बल्कि “सूक्ष्म विनाश” का प्रतीक है।
‘सेव सिटी फॉरेस्ट’ जैसे संगठनों ने इस प्रस्ताव का खुला विरोध करते हुए माँग की है कि इस क्षेत्र को राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया जाए, जैसा कि कासु ब्रह्मानंद रेड्डी (KBR) पार्क के मामले में हुआ था।
विकराबाद का हरा अरण्य, नौसेना परियोजना की भेंट
वर्ष 2020 में तेलंगाना सरकार ने विकराबाद ज़िले के दमगुंडम वन क्षेत्र में 1,174 हेक्टेयर भूमि को नौसेना के वेरी लो फ्रीक्वेंसी संचार स्टेशन हेतु आवंटित किया। इस परियोजना के चलते लगभग एक लाख परिपक्व पेड़ों के कटने की आशंका है। यद्यपि सरकार का कहना है कि 1,500 एकड़ को ‘ग्रीन जोन’ में रखा जाएगा, परंतु स्थानीय निवासियों और वन्यजीव विशेषज्ञों को इसका औचित्य स्पष्ट नहीं दिखता।
बजट का विरोधाभास और इको-टूरिज्म का भ्रम
तेलंगाना सरकार ने 2024-25 के बजट में वन एवं पर्यावरण विभाग के लिए 1,064 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है और इको-टूरिज्म नीति को भी लागू करने की बात की है। लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि जिन्हें संरक्षित वन क्षेत्र बनाकर इको-टूरिज्म हब में बदला जाना चाहिए, उन्हीं क्षेत्रों को विकास की बलिवेदी पर चढ़ाया जा रहा है।
विकराबाद-आनंतगिरि, अमराबाद और कावल टाइगर रिजर्व जैसे जंगलों को पर्यटन केंद्र बनाने की योजनाएँ तभी सफल होंगी, जब जंगल पहले बचे रहेंगे।
उठती आवाज़ें: शिव सुनो, जंगल पुकारते हैं!
एनजीओ, छात्र संगठन और पर्यावरण प्रेमियों ने विरोध की चिंगारी को जनांदोलन में बदल दिया है। कोथागुड़ा बॉटनिकल गार्डन से लेकर गाचीबोवली तक शांति मार्च निकाले गए हैं। ‘शिव सुनो! जंगल पुकारते हैं!’ जैसे नारे सोशल मीडिया और सड़कों पर गूंज रहे हैं। ट्विटर पर #SaveTelanganaForests ट्रेंड कर रहा है।
यह विरोध केवल भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं है, बल्कि यह धरती माँ की ओर से एक आर्तनाद है—जो अपने बेजुबान बच्चों की चीखें सुना रही है।
प्रकृति बनाम प्रगति: क्या कोई संतुलन संभव है?
तेलंगाना की परिस्थितियाँ पूरे देश को यह सोचने पर मजबूर करती हैं—क्या विकास का मार्ग केवल विनाश से होकर ही गुज़रता है? क्या सरकारों के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं है जो प्रकृति को नुकसान पहुँचाए बिना भी प्रगति कर सके?
हमें एक ऐसे विकास मॉडल की आवश्यकता है जो समावेशी, पर्यावरण-सम्मत और संतुलित हो। ऐसा नहीं हुआ तो न जंगल बचेंगे, न जलवायु, और न ही हम।
क्योंकि अगर जंगल नहीं रहे, तो हम भी नहीं रहेंगे
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